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कविता

एक चीख के दायरे में

आरती


यूँ तो गूँगे हो जाने की हद तक चुप रही मैं
इस बीच, एक आत्मयुद्ध चलता रहा
कि निश्चित कर पाना
चीखने और गूँगे हो जाने के बीच का कुछ... कुछ
यही ‘कुछ’ तलाशते एक दिन
चीख उठी
बस्स्स्स बहुत हो गया
मेरी चीख गरम हवाओं में धुलकर
चौतरफा फैल चुकी थी
इस दौरान हवाएँ बेशक थोड़ा धीमे धीमे बहीं
कदमों ने कुछ तय कर लिया था शायद
वे निहायत तेज और तेज चले
मुझे मंजिल का पता ठिकाना मालूम ना था
मेरी घरघराती आवाज थोड़ी कम हुई तो
खुद को उस पहाड़ के पास खड़ा पाया
जिसे सपनों के वार्डरोब में
तहाकर रख दिया था
आज बाँहें फैला दी
गले से लगा दिया
चूम लिया माथे को
यह सपना जागरण की अमानत है
सोती आँखों में भी जागते रहनेवाला
वह अब पहाड़ की चोटी को जूम कर रहा है
यह सब एक चीख के दायरे में घटता गया


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